उद्भव एवं विकास
संभवत: 1969-70 का वर्ष था जब आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज के जयपुर चातुर्मास, जो लाल भवन- चौड़ा रास्ता में था, में व्याख्यान चल रहा था और उन्होंने किसी व्यक्ति का दृष्टान्त दिया जिसने लक्ष्य की पूर्ति के लिए किसी वस्तु के सेवन का त्याग किया और जब तक लक्ष्य पूरा न हुआ तब तक उसने त्याग का पालन किया। मेरे भी मन में संकल्प उठा कि छात्रों को छात्रवृत्ति देने के लिए कोई कोष हो जिससे मेधावी लेकिन साधन- वंचित छात्रों को आगे पढ़ने में मदद मिल सके | व्याख्यान के बाद आचार्य श्री से निवेदन किया कि वे मुझे नियम दिलायें कि जब तक पांच लाख रूपये का कोष का निर्माण न हो जाय तब तक मैं दूध व दूध से बनी वस्तुओं का त्याग करूँ। उन्होंने नियम दिलाया और उसी दिन से कोष एकत्र करने का काम शुरू किया।
छात्रवृत्ति कोष के निर्माण की प्रेरणा मुझे अपने विद्यार्थी काल से मिली।बी कॉम तक तो मुझे पढने में ज्यादा दिक्कत नहीं आई क्योंकि अजमेर में मेरी बहन और बहनोई साहिब की मदद थी और कॉलेज में फीस भी माफ हो गई थी क्योंकि दसवीं की कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। मुझे मेरे प्रोफेसरों ने किताबें मुहैय्या करा दीं थी। पार्ट टाइम नौकरी कर के भी अपना छोटा मोटा खर्चा निकाल लेता था परन्तु जब MA की पढाई के लिए दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में भर्ती होने का प्रश्न आया तो आर्थिक तंगी को देखते हुये छात्रवृत्ति की तलाश की और सौभाग्य से खानदेश शिक्षण संस्था भुसाबल से 30 रूपए माह की छात्रवृत्ति मिली जिससे मासिक फीस का इंतजाम हो गया। बाकी खर्च ट्यूशन से पूरा किया और यहाँ भी मेरे ताउजी के बेटे रहते थे जिनके सहयोग से रहने और भोजन की व्यवस्था हुईं। मुझे दिल्ली कौ एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई थी परन्तु जब मेरे बड़े भाई साहिब श्री जसवन्त सिंह जी ने पूँछा कि तेरी क्याइच्छा है- पढ़ने की या नौकरी की ? मैंने पढ़ने की इच्छा जाहिर की और उन्होंने तत्काल फीस जमा करा दी। उनके प्रयास से ही दिल्ली में पढ़ने का मौका मिला और दिल्ली वाले भाई साहिब के सहारे रहने की चिंता भी समाप्त हो गई। दिल्ली में पढाई करने से है आईएएस की परीक्षा देने की प्रेरणा व मौका मिला। अनुभव मे आया कि यदि सहयोग नहीं मिलता तो पढाई बी. कॉम के बाद है खत्म करनी पड़ती । अत: ऐसे छात्र जो थोड़ी सी भी मदद मिलने मे आगे बढ़ सकते हैं उनका सहयोग करना चाहिये । व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास सीमित ही होता है परन्तु संस्थागत स्तर पर प्रयास व्यापक और स्थायी किये जा सकते हैं। यदि एक कोष की स्थापना हो तो उसके ब्याज से सालों-साल यह व्यवस्था कायम की जा सकती है। यही प्रेरणा मन में जगी और आचार्य श्री के व्याख्यान से प्रभावित हो दूध और दूध से बनी वस्तुओं का त्याग पांच लाख रूपये का कोष स्थापित न हो तब तक करने का निर्णय लिया ।
सर्व प्रथम प्रयास जयपुर में प्रारम्भ किया और एक संस्था का रजिस्ट्रेशन कराया जिसका नाम आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज की सलाह के अनुसार ‘श्री वर्द्धमान सेवा समिति’ रखा और विधान के अनुसार संरक्षक सदस्य का दान का स्तर दस हजार रुपये रखा और साधारण आजीवन सदस्य का पांच सौ रूपये रखा। परन्तु अपेक्षा के अनुसार लोगों ने दान नहीं दिया। जिनसे दस हजार की अपेक्षा थी वे पांचसौ रूपए लिखावें तो कोष का निर्माण होना संभव नहीं था। कुछ समय तक वर्षानुवर्ष लोगों से धन ले कर जरूरतमंद छात्रों को त्वरित सहायता दी परन्तु यह अधिक दिन तक चलने वाला नहीं था। 1973 में मेरा स्थानान्तरण बीकानेर में निदेशक शिक्षा (Director of Primary and Secondary Education) के पद पर हो गया। अतः यह काम स्थगित हो गया। 1974 में मेरा स्थानान्तरण अजमेर जिलाधीश के पद पर हुआ और संयोगवश 1975 भगवान महावीर का 2500वां निर्वाण वर्ष के रूप में पूरे भारत व विश्व में मनाया गया। यह उपयुक्त समय था कोई स्थायी काम करने का । अधिकतर स्थानों पर स्मारक, शिलालेख लगाये जा रहे थे परन्तु वे सेवा के कार्य न थे। अजमेर में श्री सम्पतमलजी लोढ़ा जैन समाज के अग्रणी थे और उन्हें मेरे नियम (कोष निर्माण तक दूध व दूध से बनी वस्तु का त्याग) के बारे में जानकारी शायद मिल गई थी। वे प्रस्ताव ले कर आये कि स्थायी सेवा का काम करने के लिए संस्था स्थापित कर पांच लाख का कोष स्थापित किया जाय। यह तो ऐसी बात थी ‘ नेकी और पूंछ पूंछ’। जयपुर की वर्द्धमान सेवा समिति के विधान के आधार पर ‘ श्री महावीर स्मारक सेवा समिति ‘ का विधान बना कर रजिस्ट्रेशन कराया और धन एकत्र करने का कार्य प्रारम्भ किया।
इस सेवा के कार्य में श्री सम्पतमलजी लोढा के अतिरिक्त जो लोग जुड़े उनमें प्रमुख थे श्री उमरावमलजी ढट्ज, श्री मांगीलालजी जैन, श्री अमरचन्दजी लूणिया, श्री रूपराजजी कोटारी, श्री भागचंदजी सोनी, श्री माणकचंदजी सोगानी आदि और भी कई महानुभाव जुड़े परन्तु सबके नाम लिखने से लिस्ट भी लम्बी हो जाएगी और किसी का नाम छूटा तो उनके प्रति न्याय भी नहीं होगा। उपरोक्त में से श्री मांगीलालजी जैन आज भी सक्रिय हैं और उनका वरद हस्त बना रहता है।
इसमें खास बात यह थी कि जैन समाज के चारों वर्ग (दिगंबर, श्वेतमबर स्थानकवासी बाइस पंथी, श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी और श्वेतमबर तेरापंथी ) सम्मिलित थे। जयपुर में भी इसी आधार पर श्री वर्द्धमान सेवा समिति का गठन किया था यधपि सुझाव आया था कि किसी एक संप्रदाय की ही संस्था बनायें और सबको शामिल न करें। पर मेरी मंशा थी कि सब वर्ग साथ हों और एक मंच हो जहाँ सब जैन एक हों । अजमेर और जयपुर दोनों स्थानों पर संस्था में जैन समाज के सब वर्गो का प्रतिनिधित्व है। यह लक्ष्य रहा कि धन एकत्र केवल जैन समाज से किया जाय परन्तु सहायता या सेवा से लाभान्वित करने में जाति या वर्ग का कोई भेद न हो और सब जरूरतमंद लोगों को सहायता मिले । श्री महावीर स्मारक सेवा समिति के 40 वर्षों में ऐसा कोई दिन नहीं आया जब किसी भी जरूरतमंद को जाति भेद से वापस लौटाया हो। त्वरित सहायता में तो प्रार्थना पत्र आदि की औपचारिकतायें भी काम में नहीं ली जाती थीं।
सर्व प्रथम तो अजमेर में ही सदस्य बनाये परन्तु प्रगति धीमी ही रही । जिलाधीश पद पर कार्य भी काफी रहता है तो छुट्री के अलावा समय देना भी मुश्किल था। संयोग से मरुधर केशरी कड़क श्री मिश्रीमलजी महाराज का अजमेर में पधारना हुआ। उनको संस्था की योजना बताई और उनसे मार्ग दर्शन माँगा। उन्होंने कहा कि महावीर जयंती के दिन वे ठांठोठी में होंगे वहाँ हम सब उपस्थित हों और तब वे मार्ग बतायेंगे। हम सब वहां गये और व्याख्यान में घोषणा की कि मद्रास के एक भाई श्री हेमराजजी सिंघी, जो कुशालपुरा (पाली जिला) के हैं, की तरफ से रू. 51000/- लिखें (यह सज्जन वहां मौजूद नहीं थे) और बाकी रकम एक माह में हम सब सदस्य एकत्र करें और एक माह में यदि लक्ष्य पूरा न हो तो लक्ष्य पूरा करने तक लूखी रोटी और छाछ का सेवन करें । अब तक तो मेरा ही नियम था परन्तु अब एक माह बाद सबको नियम लेना था। सब सदस्यों के लिए आतुरता से काम करना और लक्ष्य को पूरा करना एक मिशन बन गया। कुछ दिन की छुट्टी ली और किशनगढ़, ब्यावर, केकड़ी , बिजयनगर, पीसांगन आदि सब स्थानों पर जाकर प्रत्येक व्यक्ति के घर या दुकान जा कर सदस्य बनाये और एक माह में करीब 500 सदस्य बना कर लक्ष्य पूरा किया और जो संकल्प 1969 में लिया वह 1975 में पूरा हुआ।
संस्था ने नगर विकास न्यास में अपने कार्यालय के लिए भूमि आबंटन के लिए प्रार्थना पत्र दिया और न्यास का अध्यक्ष उस वक्त जिलाधीश ही होता था। प्रस्ताव न्यास की मीटिंग में रखा और न्यास ने कोतवाली के बाहर खाईलैंड योजना में व्यापारिक प्लाट आबॉटित किया जिसमें नीचे दुकाने हैं और ऊपर कार्यालय, चिकित्सालय आदि हैं। किराये व ब्याज की आमदनी से सेवा के अनेक कार्य चल रहे हैं। समिति के प्रथम अध्यक्ष श्री सम्पतमलजी लोढ़ा बने और करीब 25 वर्षो तक उन्हीं के नेतृत्व में संस्था ने कार्य किया। आबंटित भूमि पर तीन मंजिल का भवन बना | इस कार्य में श्री रूपराजजी कोटठारी का अपूर्व सहयोग रहा। वे वर्षों तक कोषाध्यक्ष रहे। श्री उमरावमलजी ढड़ा समिति के महामंत्री रहे। अब परम्परा यह कर दी गई है कि कोई भी व्यक्ति एक पद पर दो कार्यकाल से अधिक कार्य न करे।
प्राथमिकता के आधार पर छत्रवृत्ति वितरण, विधवा सहायता, गरीब मरीजों को दवा की सहायता के काम प्रारम्भ किये। IAS, RAS व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कक्षाओं का संचालन हुआ, अंग्रेजी सुधार के लिए कक्षाएं चलाईं जिसमें श्री एम. के. मारवाह का बहुत बड़ा योगदान था और ये कक्षाएं बहुत लोकप्रिय हुईं। इन सब कक्षाओं का सझ्जालन काफी वर्षों तक हुआ। दसवों कक्षा के छात्र छात्राओं के लिए साइंस, गणित और अंग्रेजी के लिए विशेष कोचिंग की व्यवस्था दिसंबर से मार्च तक कराई जिससे गरीब बच्चे जो ट्यूशन के लिए व्यवस्था नहीं कर पाते वे इसका लाभ उठा सकते थे। प्रतियोगी परीक्षाओं के आयोजन के लिए उपयुक्त व्यक्ति संचालन के लिए न मिलने से काम स्थगित करना पड़ा । महिलाओं के लिए सिलाई केंद्र वर्षों से चल रहा है और सैंकड़ों महिलाओं ने लाभ उठाया है। चिकित्सा सहायता में श्री उदयलालजी कोठारी का विशेष योग रहा। वे अपने स्तर पर एक से दो लाख रुपये एकत्र करते और समिति में जमा करवाते और स्वयं रोगी की आवश्यकता जांच कर डॉक्टर द्वारा निर्धारित दवा वितरित करते। इसके अतिरिक्त श्री नवरतनमलजी कोठारी के सहयोग से इस भवन में श्री कृष्णणोपाल आयुर्वेद संस्थान कालेड़ा का आयुर्वेद चिकित्सालय चल रहा है जिसमें वैद्य श्री शांत कुमार जी प्रारम्भ से रोगियों की जांच कर दवा देते हैं। वैद्यजी व दवा का सारा खर्च कालेड़ा संस्थान उठाता है। समिति ने स्थान देकर इस कार्य में सहयोग दिया है। प्रतिदिन 20 से 30 नए रोगी सेवा का लाभ उठाते हैं । इसके अतिरिक्त एलोपैथी में डॉक्टर निर्मला मेडतवाल सेवा देती हैं और स्त्री रोगों के लिए विशेष सेवा देती हैं। होमियोपैथी का चिकित्सालय भी चलता है जिसमें डॉक्टर श्री के. के. शर्मा सेवा देते हैं और मरीजों को मुफ्त दवा दी जाती है। एलोपैथी व होमियोपैथी के इलाज का सारा खर्च समिति वहन करती है। इसके अतिरिक्त समय समय पर गावों व मोहल्लों में चिकित्सा कैंप भी लगाये हैं। आपात काल स्थिति जैसे अजमेर में बाढ़ की स्थिति तथा अकाल के समय में तत्काल सहायता के कार्य भी चलाये हैं । इन सब कार्यों का विस्तृत विवरण अलग से दिया जा रहा है।
छात्रवृत्ति वितरण में एक शर्त रखी थी कि जब आप योग्य बनें कर रकम वापस चुकावें या किसी अन्य को मदद करें। बहुत लोगो ने इस शर्त का ध्यान नहीं रखा न पालन किया लेकिन कुछ लोग एक सामाजिक दायित्व मान कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते है। एक छात्र को करीब 20 वर्ष पूर्व छात्रवृत्ति दी होगी और आज बहुत अच्छी सक्षम स्थिति में है और अचानक समिति कार्यालय में पहुंचा और पूछा कि अमुक वर्ष में आपने छात्रवृत्ति दी थी क्या ?
उसका नाम पता पूछने पर समिति की रोकड़ बही में उस छात्रका नाम बताया तो तत्काल उसने पांच लाख का चेक समिति को दिया और कहा इससे अन्य छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाय । यदि हमारे पुरे छात्रवृत्ति पाने वाले छात्रों को आज एकत्र किया जाय तो वे सहर्ष इस प्रकार का सहयोग करने को तैयार होंगे । पुराने छात्रों में यह सहयोग को भावना को प्रस्फुटित कर छात्रवृत्ति के कार्य को काफी व्यापक बनाया जा सकता है।
समिति अब प्रौढ़ हो चली है और आगे की योजना काफी बड़ी और समाज को व्यापक रूप से लाभ पहुँचाने वाली होनी चाहिये। सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाय तथा शिक्षा व चिकत्सा के क्षेत्र में अच्छी नवाचार की योजना बने तो समिति सेवा के क्षेत्र में एक अग्रणी संस्था बन सकती है ऐसी मेरी इच्छा है। समिति में नई जान फूँकने की आवश्यकता है और नवयुवकों को इसमें आगे लाकर संस्था को जीवंत और प्रगतिशील बनाएंगे ऐसी मेरी मनोकामना और शुभेच्छा है।